Saturday 30 September 2017

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कही अशोक को ही रावण बनाकर पेश तो नही कर दिया गया, रावण के पास अशोक वाटिका....

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Thursday, 28 September 2017

कही अशोक को ही रावण बनाकर पेश तो नही कर दिया गया, रावण के पास अशोक वाटिका....


रावण और अशोक का संबंध कही अशोक को ही रावण बना कर पेश तो नही कीया बचपन से एक प्रश्न मन में था कि लंका में बनी अशोक वाटिका में क्या कभी सम्राट अशोक रहते थे? या यह वाटिका अशोक ने बनवाई थी?सीता जिसमें रह रही थी उस वाटिका को हनुमान ने क्यों नष्ट कर दिया? खैर ये बच्चे के मन में उठे छोटे-छोटे बेकार प्रश्न हो सकते हैं. सोशल मीडिया पर एक प्रकरण पढ़ा जिसमें तार्किक दृष्टि से मुझे एक नई बात का पता चला. इसमें बड़ा प्रश्न निहित है कि ‘रामायण’ (जिसे इतिहास से भी पहले का अतिप्राचीन ग्रंथ कहा जाता है) पहले लिखी गई या इतिहास में लिखे बुद्ध पहले हुए. 

इस बारे में फेसबुक पर रामायण में से ही एक उद्धरण दिया है जो इस प्रकार है- यथा हि चोरः स तथा ही बुद्ध स्तथागतं नास्तीक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तीके नाभि मुखो बुद्धः स्यातम्। अयोध्याकांड सर्ग 110 श्लोक 34 अर्थात जैसे चोर दंडनीय होता है इसी प्रकार बुद्ध भी दंडनीय है. तथागत और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए. इसलिए नास्तिक को दंड दिलाया जा सके तो उसे चोर के समान ही दंड दिलाया जाय. परन्तु जो वश के बाहर हो उस नास्तिकसे ब्राह्मण कभी वार्तालाप न करे! (श्लोक 34, सर्ग 110, वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड.)” इस श्लोक में बुद्ध-तथागत का उल्लेख होना हैरान करता है और इसके आधार पर मैं इस तर्क को अकाट्य मानता हूँ कि बुद्ध पहले हुए और रामायण की रचना बाद में की गई. 

इसी संदर्भ में फेसबुक पर क्षेत्रीय शक्यपुत्र की एक अन्य पोस्ट देखी जो इस कहानी को अन्य तरीके से कहती है. फिर भी इस बातका ध्यान रखना होगा कि पुरानी कथा-कहानियाँ कई तरीके से सुनी-सुनाई जाती रही हैं. अतः लिखी बात का अर्थ भी हर व्यक्ति को अलग तरीके से संप्रेषित होता है. (हालाँकि शक्य पुत्र की यह पोस्ट रामायण की कथा में खोज-खुदाई करती है और अशोक के संदर्भ में कुछ समानताओं और विसंगतियों को ढूँढ लाती है, लेकिन इस पोस्ट में अपनी भी कुछ विसंगतियाँ हो सकती हैं.) ब्लॉग की दृष्टि से इसका थोड़ा सा संपादन मैंने किया है. रावण के कार्यकाल में अशोक वाटिका कहाँ से आती है? कहीं साहित्यकारों ने चक्रवर्ती सम्राट अशोक को रावण के रूप में प्रदर्शित तो नहीं किया? 

क्योंकि, रावण की कुछ विशेषताएँ थीं जो कि सम्राट अशोक से मिलती जुलती हैं, महान विद्वान, वीर योद्धा, शूर सिपाही, बहुत बड़ा संत, अपने संबंधियों व प्रजा का दयालुता पूर्वक पालनकर्ता, शक्तिशाली पुरुष, वरदानी पुरुष, इतना ही नहीं बल्कि रावण एक बौद्ध राजा था ऐसा श्रीलंका स्थित कुछ विद्वान भिख्खुओंका कहना है. आज भी रावण को श्रीलंका में पूजनीय माना जाता है. श्रीलंका में रावण के विहारों में कुछ मूर्तियाँ और कुछ शिल्पकलाएँ पाई जाती हैं जिनमें रावण धम्म का प्रचार करते हुए स्पष्ट नजर आते हैं. इतिहास को एक बार देखा जाए तो श्रीलंका में बौद्ध धम्म को फैलाने वाले और कोई नहीं वे सम्राट अशोक ही थे. रावण ऋषियों से घृणा करते थे. क्यों? क्योंकि वे यज्ञ के नाम पर छल-कपट पूर्ण स्वधर्म नियमानुसार गूँगे पशुओं को आग में बलि दे कर हृदय विदारक अपराध करते थे. तो इसी से यह साफ होता है कि रामायण एक काल्पनिक एवं ब्राह्मणों द्वारा रची हुई नकली कथा है.

अगर रावण यज्ञ में चल रहे पशुओं की बलि सह नहीं सकते थे तो क्या वे जटायु नामक पशु को मार सकते हैं? रामायण में एक और कथा कही गयी है कि रावण ने सभी देवी-देवताओं को बंदी किया था. यह कथा भी सम्राट अशोक की कथा से मिलती जुलती है. क्योंकि सम्राट अशोक ने भी धम्म में घुसे हुए कुछ नकली लोगों को बंदी बनाकर उन्हें धम्म से हटा दिया था. अगर आप एक बार रामायण पढ़ें तो उसमें आपको दिखाई देगा कि इस नकली एवं काल्पनिक ग्रंथ के लेखक ने खुद रावण की प्रशंसा की है. वह लिखता है कि रावण एक सज्जन पुरुष था. वह सुंदर और उत्साही था. किंतु जब रावण ब्राह्मणों को यज्ञ करते हुए और सोमरस पीते हुए,, देखते थे तो उन्हें कड़ा दंड देते थे. 

इसलिए मुझे तो लगता है कि सम्राट अशोक का विद्रूपीकरण करके ही पाखंडियों ने रावण को ऐसा प्रदर्शित किया है. क्योंकि इतिहास तो यही कहता है कि धर्मांध लोगों द्वारा दशहरा माना जाता है. दशहरा का और दस पारमिता का कही कोई संबंध तो नहीं? 
क्योंकि इसी दिन सम्राट अशोक ने शस्त्र का त्याग कर बुद्ध का धम्म अपनाया था. जिसे आज हम धम्मचक्र प्रवर्तन दिन और अशोक विजयादशमी कहते हैं.
आइये आज कुछ अनछुएं पहलुओं पर ध्यान दें❗👇🏽👇🏽👇🏽

अशोक विजयादशमी का पर्व भारत के
महान चक्रवर्ती सम्राट अशोक के बौद्ध दीक्षा ग्रहण करने के उपलब्ध में मनाया जाता है.... ❗
👇🏽
1-सम्राट अशोक के राज्य में १००% जनता शिक्षित
थी❗
2-सम्राट अशोक के राज्य में मानव विकास में दुनिया १ नंबर था, यह नोबेल विजेता एवम भारतीय
अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का संशोधन है❗
3-जिस देश में सोने की चिडिया उडती थी "वह
देश सम्राट अशोक कालीन था ❗रामायण नाम
का काल्पनिक काव्य में "अशोक वाटिका "का उल्लेख आता है, और रावण नाम का भी काल्पनिक
पात्र दुसरा -तीसरा कोई नही, वह
बृहदत्त (रावण)है, वह सम्राट अशोक की "सोने की लंका थी 
बृहदत्त (रावण ) की हत्या पुष्पमित्र शुंग (राम ) ने
कपटता पूर्वक की, इस काव्य में
"विभीषण "नाम का रावण का भाई बताया, आज
भी विभीषण को गाव में कहावत में
"दगाबाज" कहते है, यही दगाबाजी राम
(पुष्पमित्र )श्रुंगने विभीषण,हनुमान जैसे
बहुजन समाज के लोगो को हात में लेकर की गयी❗
आज भी आर.एस.एस.(राम/पुष्पमित्र
श्रुंग),बजरंग दल (हनुमान/आज के ओबीसी )का वापर
ब्राम्हणो की व्यवस्था निर्माण करने में
होती है❗
४) सम्राट अशोक ने 
(विजयादशमी) के दिन अपने शस्त्र रख दिये थे❗और
अपने हिंसा वृत्ती पर बुद्ध
का अहिंसा का मार्ग अपनाया, मानो बुद्ध धम्म
का पुनः प्रगटन किया❗
आज हमे ज्यो ब्राम्हण धर्म "दशहरारा " का उल्लेख
"अधर्म पर धर्म की विजय " कहता है❗
बल्कि "धर्म पर धम्म की विजय
" है, यही धम्म "सन्मार्ग" बहुजन समाज का हो सकता है तभी यह देश "सोने
की चिडिया " कहलेगा❗
 दशहरा (दश+हरा=दश को मारने वाला)
मौर्य राजाओँ का शासन काल 137 वर्ष चला❗
मौर्य राजाओँ की पीढ़ीवार सूची :-👇🏽

(01) चन्द्रगुप्त मौर्य❗
(02) बिन्दुसार मौर्य❗
(03) सम्राट अशोक❗
(04) कुणाल मौर्य❗
(05) दशरथ मौर्य❗
(06) संप्रति मौर्य❗
(07) शालीशुक्त❗
(08) देववर्मा मौर्य❗
(09) सत्यधनु मौर्य❗
(10) बृहदत्त मौर्य❗

यहाँ ध्यान देने की बात है कि-
पुष्यमित्र ब्राम्हण ने मौर्य के दसवेँ सम्राट की हत्या की थी,
इसलिए ब्राम्हणोँ ने इस दिन को खुशी का दिन घोषित कर दिया और
इसका नाम धम्म विजयदशमी से दशहरा रख दिया❗और हमारे ही समाज के बहुत से लोग अपने ही पूर्वज की हत्या होने 
पर शोक की जगह पर खुशी मनाते हैं❗सोचती हूं तो दुख होता है, कि आखिर हमारा मौर्यवंशी समाज कब जागेगा और अपने खोए हुए सम्राज्य को पुनः पाने के लिए अग्रसर होगा❗
यह रावण के सिर काटने की घटना नही है और न ही रावण के पास दस सिर ही थे❗
वैसे भी राजा रावण का देहान्त तुलसीकृत राम चरित
मानस के अनुसार चैत माह मेँ हुआ था अश्विन माह मेँ नहीं❗
यह तो मौर्यवंश के दसवेँ सम्राट बृहद्रथ को मारकर उसके दस पीढ़ियों के अस्तित्व को समाप्त
करने के कारण-
----------------दशहरा (दश+हरा=दश को मारने वाला)---------------------------
नाम प्रचारित किया गया और राम- रावण की कहानी थोपी गई और
उसे बुद्ध से भी पहले की घटना बता कर प्रचारित कर दिया गया
/2017/09/blog-post_28.html?m=1
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Saturday 9 September 2017

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যে জাতি তার ইতিহাস জানে না। সে জাতি তার ইতিহাস নির্মাণ করতে পারেনা। লেখক - জগদীশচন্দ্র রায়


যে জাতি তার ইতিহাস জানে না। 
সে জাতি তার ইতিহাস নির্মাণ করতে পারেনা।
লেখক - জগদীশচন্দ্র রায় 
আবার এটাও বলা হয় – গোলাম, গোলামীতেই আনন্দ উপভোগ করে। Slave enjoy for slavery. ব্রাহ্মণ্যবাদী ব্যাবস্থায় জাতিভেদ প্রথা হচ্ছে এই ব্যবস্থার প্রাণভোমরা। এই প্রাণভোমরাকে তারা কোন প্রকারে নষ্ট করতে চায় না। যার জন্য বাবা সাহেব  তাঁর Annihilation of Caste  এ বলেছেন- ধর্মনিরপেক্ষ ব্রাহ্মণ এবং পুরোহিত শ্রেণীর ব্রাহ্মণদের মধ্যে পার্থক্য করা অর্থহীন। তারা উভয়েই পরস্পরের  আত্মীয়। তাঁরা একই শরীরের দুটি বাহু। এক বাহুর অস্তিত্বের জন্য অন্য বাহু যুদ্ধ করতে বাধ্য।  (Is it reasonable to expect the secular Brahmins to take part in a movement directed against the priestly Brahmins? In my judgment, it is useless to make a distinction between the Secular Brahmins and Priestly Brahmins. Both are kith and kin. They are two arms to the same body and one bound to fight for the existence of the other.)
ব্রাহ্মণ্যবাদের আর একটি কৌশল হচ্ছে, যদি কোন অব্রাহ্মণ শত বাঁধা অতিক্রম করে উপরে উঠে আসে, তখন তাঁর এই উপরে উঠে আসার কারণ বা সহযোগীও ব্রাহ্মণ; এই কথা প্রচার করে দেয়। আবার যদি কোন ব্যক্তি ব্রাহ্মণ্যবাদকে জীবনের প্রথম থেকে ত্যাগ করে তিনি নিজের জীবনকে দেশ ও সমাজের জন্য তুলে ধরনে, তখন এই ব্রাহ্মণ্যবাদীরা তাঁকে সর্ব শক্তি প্রয়োগ করে ভিলেন বানিয়ে দেয়। আর এই নিজেদের ইতিহাস না জানা গোলামরা, গোলামীতে আনন্দ করা চামচারা এই ভিলেন বানানোর কাজে সর্বদা সহায়তা করতে থাকে। যার ফলে তারা তাদের প্রাপ্যও পেয়ে যায়।



   যে মানুষটা ঘোষণা করে বলেন, “যদি কেউ নিশ্চিত করিয়া বলিতে পারে যে, আমার জীবনের   বিনিময়ে  তফশিলিদের সার্বভৌম মুক্তি আসিবে, জ্বলন্ত অগ্নিকুন্ডে আমাকে নিক্ষেপ করিলে সে মুক্তি মেলে, তবে আমি দুর্বার আকাংঙ্খা লইয়া তাহাতেই ঝাঁপাইয়া পড়িব।”
যিনি আরো বলেছিলেন- “মৃত্যুর পরে যদি কেহ আমাকে স্মরণ করে তবে, এতসব উচ্চপদের অধিকারী হইয়াও আমি যে ধনী না হইয়া গরীব রহিয়াছি, এই বলিয়াই যেন স্মরণ করে- ইহাই আমার কাম্য। একটি নিপীড়িত গরীব সম্প্রদায়ের মধ্যে জন্ম গ্রহণ করিয়া বহুবার উচ্চপদে  অধিষ্ঠিত হইয়াও আমি যে অসৎপথে উপার্জনের দ্বারা ধনী হই নাই, ইহা মানুষ উপলব্ধি করুক -এই কামনাই আমি করি।”  
যাঁর সম্পর্কে বিদগ্ধ ব্যক্তিরা বলেছেন-https://www.youtube.com/watch?v=r6-hAY_yTRI&t=7s
https://www.youtube.com/watch?v=4p5TYNvhRP4&t=995s
ডঃ প্রদীপ আগলাবেঃ- বাবাসাহেব যদি সংবিধান সভায় যেতে না পারতেন তাহলে এই দেশের সংবিধান ব্রাহ্মণদের পক্ষেই লেখা হ’ত । তাই যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল আম্বেদকরী আন্দোলনে যে সহযোগীতা করেছেন এবং মূলনিবাসীদের উদ্ধারের জন্য যে কাজ করেছেন সেটা অসাধারণ কাজ
ঊষাপ্রসন্ন মুখোপাধ্যায়ঃ- ভারতীয় রাজনীতির ইতিহাসে যোগেন্দ্রনাথ মন্ডলের স্থান সম্পর্কে নানা সনের মনে যে বিভ্রান্তি বা সংশয় দেখা যায় সেটা বহুলাংশে অজ্ঞতার কারণে তাঁকে দেশ বিভাগের জন্যেও অংশতঃ দায়ী করা হয় অথচ তাঁরমত কর্মযোগী দেশবৎসল, স্ব-সম্প্রদায়ের উন্নয়নে নিবেদিত প্রাণ নেতা ভারতীয় রাজনীতির ইতিহাসে কমই দেখা গেছে
কিরণ চন্দ্র ব্রহ্মঃ- ভারত স্বাধীন হওয়ার পরেই চারিদিক হতে একটা চিৎকার প্রতিধ্বনিত হল যে যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল দেশ ভাগ করেছেন, তাঁর মত সর্বনাশা লোক ভারতে আর কেউ নেই এই মিথ্যা দোষারোপকারীরা অশ্লীল ভাষায় তাঁকে অজস্র গাল দিয়েছে প্রকৃত পক্ষে ভারত ভাগে তাঁর কোন ভূমিকা ছিল না তবে এই কুৎসা রটনাকারীদের উদ্দেশ্য কি তাও প্রনিধান করা করা দরকার যারা এই মিথ্যা রটিয়েছে তারাও জানে ভারত ভাগে যোগেন্দ্রনাথের কোন ভূমিকাই ছিল না এবং তিনি দেশ ভাগের একান্ত বিরোধী ছিলেন এই কুৎসা রটনার কারণ আমাদের কাছে মোটেই দুর্বোধ্য নয় কারণ, এই দেশের নিপীড়িত মানুষের অন্তরে মহাপ্রাণ যে শ্রদ্ধা অর্জন করেছেন সেটাকে নষ্ট করে দিয়ে সাধারণ মানুষের অন্তর থেকে তাঁকে চিরতরে মুছে দিতে পারলে তাঁর আজীবন সংগ্রামকে ব্যর্থ করে দেওয়া যায় এই ছিল কুৎসা রটনাকারীদের মূল উদ্দেশ্য  
আর তিনি তাঁর প্রতি অভিযোগের ব্যাখ্যা দিতে গিয়ে বলেছেন তাঁর জীবনের শেষ ভাষণে- দেশ ভাগের জন্য আমাকে দায়ী করা হয়। মন্ডল দেশ ভাগ করেছে। সে সম্বন্ধে বলি, দেশ ভাগের ব্যাপারে আমার কোন ক্ষমতা ছিল না।   কংগ্রেস কমিটি  ও মুসলিম লীগ উভয় পার্টির নেতাগণ মিলিত সিদ্ধান্ত নিয়ে বৃটিশ সরকারের কাছে স্বাধীনতার দাবী জানায়। বৃটিশ সরকার মুসলিম লীগ ও কংগ্রেস উভয়ের দেশ ভাগের দাবী মেনে ভারত ও পাকিস্থানের জন্য পৃথকভাবে স্বাধীনতা দেয়। তাই ভারত ভাগ করে ভারত ও পাকিস্থান পৃথক রাষ্ট্র তৈরী হয়। তবুও দেশ ভাগের জন্য আমাকে মিথ্যা অপবাদ দেওয়া হয় কেন?
                                     - যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)

আমি যোগেন মন্ডল, বঙ্গভঙ্গের বিরুদ্ধে তীব্র আন্দোলন করেছি। এ জন্য আমাকে বহু কটুক্তি শুনতে হয়েছে। যেমন “বঙ্গভঙ্গের বিরুদ্ধে যোগেন মন্ডলের ওকালতি।” আমি বুঝেছি বঙ্গ ভঙ্গ  হলে হিন্দু মুসলমান উভয়েই ক্ষতিগ্রস্ত হবেন। বিশেষ করে অশিক্ষিত ও গরীব যারা সামান্য চাষ আবাদ করে জীবিকা নির্বাহ করেন তাদের ভাগ্যে চরম দূর্দশা নেমে আসবে। তখন কংগ্রেস ও কমিউনিষ্ট পার্টি বঙ্গ ভঙ্গ সমর্থন করে আমাকে গালমন্দ করেছেন।
                                    - যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)  

     দেশ ভাগের পরে আমি পূর্বঙ্গে গেলাম কেন? ইহার উত্তর বহু জন সভায় বহুবার দিয়েছি। দেশ ভাগ যখন অবধারিত হয়ে গেল তখন আমার নেতা ডঃ বি. আর. আম্বেদকরের সাথে আলোচনা করি এবং পরামর্শ নেই। তিনি বলেন, “মিঃ মন্ডল কংগ্রেস ও লীগের দেশ ভাগের প্রস্তাব বৃটিশ সরকার নেমে নিয়েছেন। আমাদের কথা শোনেননি। এক্ষেত্রে আমরা কি করতে পারি? কাজেই তুমি পূর্ব বঙ্গে যাও। দেখো পূর্ব বঙ্গে বহু অনুন্নত হিন্দু থেকে যেতে বাধ্য হবেন। তুমি গিয়ে তাদের সেবা করো।” তাই আমি পূর্ববঙ্গে যাই।
                                    - যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)

১৯৪৭ সালে দেশ স্বাধীন হল, আর ১৯৫০ সালে পুনরায় ভারতে আসি। আমি পাকিস্থানে করাচি থাকাকালীন পূর্ব বঙ্গে সংখ্যালঘু হিন্দুদের উপর সাম্প্রদায়িক দাঙ্গা শুরু হল। ঢাকা ত্রিপুরা নোয়াখালী খুলনা ফরিদপুর প্রভৃতি জেলায় হিন্দুদের উপর চরম অত্যাচার খুন হত্যাকান্ড চলতে লাগল। অসহায় হিন্দুরা আমাকে বহু চিঠিপত্র টেলিগ্রাম করাচিতে পাঠাতে লাগল। পাক সরকার কৌশলগত ভাবে আমাকে জানতে দেয়নি। যখনই আমি জানতে পারলাম তখনই পূর্ববঙ্গে ছুটে গিয়ে অসহায় হিন্দুদের পাশে দাঁড়িয়েছি। দাঙ্গা বিদ্ধস্ত এলাকায় ঘুরে ঘুরে বহু জনসভা করে বক্তৃতা দিয়ে তাদের শান্তনা দিয়েছি। আমার অনেক বক্তৃতার অংশই  শাসকগোষ্ঠির কাছে দেশোদ্রহিতার রূপ নিয়েছিল। আমি করাচি পৌঁছানোর আগেই আমার বিরুদ্ধে গোয়েন্দা রিপোর্টের পাহাড় জমে গেছে।
   ইত্যাদি বহু ঘটনার পরে যখন বুঝতে পারলাম পাকিস্থানে হিন্দুদের বসবাস নিরাপদ নহে। পাকিস্থান থেকে সংখ্যালঘুদের কল্যানের জন্য যত দাবিই করেছি, পাক সরকার তা মানেনি। কথা দিয়েও কথা রাখেনি। যে হিন্দুদের কল্যানের জন্য পাকিস্থানে গিয়েছি তাদের দুঃখ দুর্দশার প্রতিকার করতে না পারলে সেখানে থাকা উচিত হবে না বিবেচনা করেই ভারতে চলে আসি। ভারতে এসে অল্প কয়েকদিন পরেই আমার সমস্ত অভিযোগ লিপিবদ্ধ করে পাক সরকার প্রধান মঃ লিয়াকৎ আলীর কাছে পদত্যাগ পত্র পাঠিয়ে দিয়েছি। সমস্ত হিন্দু ভাইদের ভারতে আসার আহ্বান জানিয়েছি। আমার পদত্যাগ পত্রের কপি বাংলা ইংরাজী বহু সংবাদ পত্রেই প্রকাশিত হয়েছে।
     আমি ভারতে আসার পরেও তিন বছর ভারত ও পাকিস্থানের যাতায়াতের দরজা খোলা ছিল। কেন এখনও পূর্ব বঙ্গে হিন্দুরা রয়েছেন? ইহার কারণ ঐ উক্ত একই বঙ্গভঙ্গের অভিশাপ।
                                                - যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)

আমাকে “যোগেন আলী মোল্লা” খেতাব নিতে হয়েছে। লীগ মন্ত্রী সভায় হিন্দু মন্ত্রীও ছিলেন, যেমন ফজলুল হক মন্ত্রী সভায় শ্যামাপ্রসাদ মুখার্জী ছিলেন। তাকে বলা হত “শ্যামাহক মন্ত্রী সভা”। তারা কেউই মোল্লা পদবীতে ভূষিত হননি কেন?- যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)  
আমি চার চার বার মন্ত্রী হয়েও জনহিতকর কাজ ছাড়া নিজের জন্য কিছু করিনি। এক ভদ্রলোক সৌজন্য বশতঃ থাকার জন্য আমাকে একটা ঘর দিয়েছেন। সামান্য একটা এম. এল. এ. হলেই ধন্য হব মনে করিনা। জনহিতকর কর্মই আমার জীবনের ব্রত। কিছু ক্ষমতা না পেলে কিছু করা যায় না।
                                           - যোগেন্দ্রনাথ মন্ডল (জীবনের শেষ ভাষণ থেকে সংগ্রহীত)

অনেকের মনে একটি ভ্রান্ত ধারণা দানা বেধে রয়েছে যে, মহাপ্রাণ যোগেন্দ্রনাথ মন্ডলের জীবনে গুরুচাঁদ ঠাকুরের কোনো প্রভাব ছিল না। সত্যানুসন্ধানী গবেষক- গুরুচাঁদ  ঠাকুরের হাতে গড়া এবং তাঁর অন্যতম পার্ষদ ভীষ্মদেব দাসের সঙ্গে মহাপ্রাণ যোগেন্দ্রনাথ মন্ডলের নিবিড় রাজনৈতিক সম্পর্ক প্রমাণের মধ্যদিয়ে এই ভ্রান্ত ধারণার নিরসন ঘটাতে সক্ষম হয়েছেন।
      -অস্পৃশ্য জনজাতির মুক্তি-সূর্য মহাপ্রাণ যোগেন্দরনাথ মন্ডল –লেখক- মনি মোহন বৈরাগী।  পৃঃ ৭/৮

যে মহান ব্যক্তির জীবনের বিভিন্ন কাজের মধ্যে আমি সর্বাধিক গুরুত্ব দেই দু’টো কাজকে; যে কাজ দু’টো বিশেষ করে দেশের পিছিয়ে রাখা সকল মানুষের উদ্ধারের জন্য তিনি করেছেন সেই কাজ হচ্ছে-
 (১) ডা. বাবা সাহেব আম্বদেকরকে সংবিধান সভায় পাঠানো।
(২) লকুর কমিটির রিপোর্টকে কার্যকরী হতে না দিয়ে সমগ্র নমঃশূদ্র, দাস, রাজবংশী ও সুড়ি বা সাহাদের তফশিলিদের মধ্যে রাখা।
কিন্তু এই কাজটি দু’টিই সব থেকে বাহ্মণ্যবাদীদের চক্ষুশূল করে তোলে মহাপ্রাণকে। যে গ্লানি আজও মুছে দেবার জন্য সেভাবে এগিয়ে আসেনি তাঁর উপকার ভোগীরা। উল্টা তাঁর প্রতি গ্লানির কথাকে অন্ধের মতো প্রচার করে চলেছে। আর গোলামীতে আনন্দ উপভোক করছে।
    তবে যেদিন সত্যি সত্যি এই মহান ত্যাগীর জীবনাদর্শ ও কর্মকে যেনে তাঁর প্রতি এই গ্লানির বিরুদ্ধে সংগ্রামে অবতীর্ণ হবে তাঁর প্রকৃত উত্তরসূরিরা সেদিন আর এক নতুন আলো জ্বলবে। যে আলোর নাম হবে মহাপ্রাণের আলো। (মহাপ্রাণের জন্মদিন ২৯ শে জানুয়ারী ১৯০৪ এবং মহাপরিনির্বাণ ৫ অক্টোবর ১৯৬৮ উপলক্ষে এই লেখা)

  


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“বিদ্যাসাগর ও বাঙালী সমাজ” লেখক – বিনয় ঘোষ

“বিদ্যাসাগর ও বাঙালী সমাজ” লেখক – বিনয় ঘোষ এর বইয়ের  পরিশিষ্ট ৩, এর ৫৪২ থেকে ৫৪৫ পৃষ্টায় লেখা আছেআর যেমন আছে সেরকমই দেওয়ার চেষ্টা করছি, যার ফলে দেখতে পাবেন কিছু বানান অন্যরকম আছে। আর বোঝার সুবিধার্থে কিছু লাইন Bold Under line  করে দিয়েছি।  
অব্রাহ্মণ হিন্দুদের সংস্কৃত কলেজে পাঠাধিকার সম্বন্ধে বিদ্যাসাগরের চিঠি।
From: The Principal of the Sanscrit Collage.
To
    Captain F. F. C. Hayes, M.A.
    Offg. Secretary, Council of Education
   Dated From Willam 28th March 1851
Sir, 
    I have the honor to acknowledge the receipt of Secretary Dr. Mouat’s letter No. 79 dated the 7th January last, requesting me to report on the subject of any other castes than Brahmanas and Vaidyas, being admitted to the Sanscrit College and to ascertain and submit to the Council the opinion of the Principal Professors of the Institution of the question.
2.  In reply beg leave to state that I see no objection to the admission of other castes than Brahmanas and Vaidyas or in other words, different orders of Shudras, to the Sanscrit College. But as a measure of expediency, I would suggest that at present Kayasthas only be admitted-they form a very respectable portion of the Hindu Community of Bengal. The prohibitions in the Shastras with regard to the Shudras do not apply in their full extent to the Kayasthas. The most orthodox Brahmins do not hesitate to give them instructions and even those Brahmins who perform the part of spiritual guides to Kayasthas are not held in disrepute, but rather are highly esteemed inspite of the Dictum of Manu, “Let him not give temporal advice to a Shudra; nor what remains from his table; nor clarified butter of which part has been offered to Gods, not let him give spiritual counsel to such a man, nor inform him of the legal expaintion for his sin”.
    3.     In the days of Manu, the only duty prescribed for a Shudra was to serve the three superior orders, nameluy Brahmans, Kshatriyas and Vaishyas- but practice has now so far superseded precent that the Kayasthas, though considered to be of the Shudra class- not only perform almost all the duties of the higher classes. But are virtually the heads of the Religious Societies in Calcutta and its Suburbs.
   4. There is no direct prohibition in the Shastras against the Shudras studying Sanscrit literature. The only portions of it, from the perusal of which they are excluded are the sacred writings. But there are not wanting authorities which allow this privilege. From certain texts of the Bhagavata Purana clear inferences may be drawn to show that they are privileged to read the above works i.e. acknowledged to be a divine Revelation and to be the essence of all the Upanisads, the most sacred portion, of the Uedas.
                      ইদং ভগবতাপূর্বং ব্রহ্মণে নাভিপংকজে।
                      স্থিতায় ভবভীতায় কারুণ্যাৎ সম্প্রকাশিতম্‌।।
                                   B. XII, Ch. XIII, V. IX.
   The (the Bhagavata) was first revealed by Vishnu to Brahma, situated in the Lotus (growing out) of his Naval and afraid of (being from into) the world.
                    সর্ববেদান্ত সারঙ্ঘি শ্রীভাগবত মষ্যতে।
                                       B. XII, Ch. XIII, V. XIII.
    By Studying it (the Bhagavata) a Brahmana obtaios wisdom, a Kshatriya territory, a Vaisya Weasth, a Shudra purification from sin.
    5.    Very lately a curious occurrences took place in this part of Bengal which to a certain extent, favours the admission of the Kayasthas to this Institution. An opulent Kayastha, the late Raja Rajnarayan  Bahadur of Andool attempting to prove that the Kayasthas are Kashatriyas and therefore not subject to the restrictions enjoyed against the Shudras, insisted orthodox Pundits to give this opinion on the subject and a host of them have subscribed in the affirmative.
  6.  By the existing rules of the Sanscrit Colllege Vaidyas are admitted to it, though Raghunandana, whose works are the classes them with the Shudras. I can therefore conceive no reason, why Kasyasthas, who occupy from sharing the boon with their brother- Shudras, the Vaidyas.
    ইদানীন্তনক্ষত্রিয়াণমপি শূদ্রত্বমাহমনুঃ শনকৈ স্তু ক্রিয়ালোপাদিমাঃক্ষত্রিয়জাতয়ঃ।
বৃষলত্বং গতা লোকে ব্রাহ্মণাদর্শনেন চ। এবঞ্চ ক্রিয়ালোপাদ্বৈশ্মানামপি তথা।
এবম শষ্ঠাদীনামপি।।
                    Shudddi Tattwa, Page 150 Serampore Edn.
    Manu has pronounced that the kayasthas of the present age are become Shudras as “By degrees from the extinction of ceremonies and omission of the study of the Vedas, the Kshatriya are become Shudras”. So from the extinction of ceremonies, the position of the Vaishyas, is the same, and also of the ambasthas, (or Vaidyas) and the like.
    7.  It would not be irrelevant to state here that in the years 1828 and 1829 during the time of Dr. Wilson, some students of the Hindu College were allowed to study Sanskrit in this Institution, among whom was a kayastha named Baboo Amritalall Mitter, a near connection of Radhakant Bahadur, who received instructions from our Pundits in Grammar and Literature, passed examinations in these branches and obtained prazis.
   8.   The reason why I recommend the exclusion of the other orders of Shudras at present, is that they, as a body, are wanting in respectability and stand lower in the scale of social considerations’ their admission,  therefore, would I fear, prejudice the interests of the Institution.
   9. In conclusion, I beg leave to submit the poinion of the Princilal Professors of the College on the subject in original with its English translation from which it will be seen that they are averse to this innovation.
                                    I have the honour to be
                                              Sir,
                               Your most obedient servant,
                                ESHWAR CHANDRA SARMA

সংস্কৃত কলেজে সুবর্ণবণিক ছাত্রদের পাঠাধিকার সম্বন্ধে বিদ্যাসাগরের  চিঠি।
From
      The Principal Sanscrit Collage.
To
       G. Gardan Young Esq., Director of Public Instruction
                         Dated Fort Willam, the 21st Nov. 1855
Sir,
   With reference to the Memorial of Baboo Shamacharan Sen  forwarded for report under your endorsement No. 1289 dated 15 Aug. last, I have the honor to remark that up to year 1851 the admissions to the Sanscrit College, were confined to Hindoos of the Brahmin and Baidya Cast only. When under order of the late council of Education the privilege of studying in that institution was extended to the Kayasthas the most repectable calte among the Sudras. In the year 1854 this privilege was further extended to all the respectable castes of Hindoos under further orders.
    But these orders I regret cannot apply to the people of the caste to which the memorialist belongs nor would it in my humble opinion be expendient at present to admit applicants of that class. It is true that some families of Sonar Baniya of Calcutta are a popular men but in the scale of castes the class the class stands very low. Admission from that class will I am sure not onlyshock the prejudice of the orthodoz Pundits of the Institution but materially injure to its popularity as well as respectability. Personally I have a always been opposed to the exclusive system as will appear from my former reports to the late Council on the subject of admitting applicants of other castes than Brahmans and Baidyas, I would have been glad to admit the son of the memorialist. The greatest latitude that expediency would allow has I believe already been under present circumstances.
    The papers received under your endorsement are herewith returned as required.   
                                                   I have etc.
                                        ESHWAR CHANDRA SHARMA 



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